Book Panditji for Diwali Pooja
अष्टांग योग (योग के आठ अङ्ग)
१- यम
२- नियम
३- आसन
४- प्राणायाम
५- प्रत्याहार
६- धारणा
७- ध्यान
८- समाधि
यम पाँच होते हैं
१- अहिंसा
२- सत्य
३- अस्तेय
४- ब्रह्मचर्य
५- अपरिग्रह
*नियम भी पाँच होते हैं
१- शौच
२- संतोष
३- तप
४- स्वाध्याय
५- ईश्वर प्रणिधान
यम पांच प्रकार के होते हैं–
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।
—-योगदर्शन-२/३०
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आइए हम इन्हे संक्षेप में जानते हैं।
(१)अहिंसा– अकारण ही किसी प्राणी को मन, वचन अथवा कर्म से पीडा(कष्ट) न देना।
*अहिंसा पालन से लाभ—
अहिंसा का आचरण परिपक्व हो जाने पर उस योगी पुरुष के समीप आने वाले प्राणियों का वैरभाव छूट जाता है।
(२)सत्य— जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही जानना, वैसा ही मानना, वैसा ही बोलना और वैसा ही व्यवहार करना।
*सत्य पालन से लाभ—
सत्य का आचरण परिपक्व हो जाने पर योगी जिन जिन उत्तम कर्मों को करना चाहता है, वे सब सफल होते हैं।
(३) अस्तेय— किसी वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना न तो उस वस्तु को लेना, न लेने के लिए किसी को वाणी से कहना और न ही मन में लेने की इच्छा करना।
*अस्तेय पालन का लाभ—
अस्तेय का पूर्णता से पालन करने पर सब उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है।
(४) ब्रह्मचर्य– मन तथा इन्द्रियों पर संयम करके शारीरिक शक्तियों की रक्षा करना , वेदादि सत्य शास्त्रों को पढना तथा ईश्वर की उपासना करना।
*ब्रह्मचर्य पालन का लाभ—
ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करने पर शारीरिक व बौद्धिक बल बढता है।
(५) अपरिग्रह—- हानिकारक एवं अनावश्यक वस्तुओं तथा विचारों का संग्रह न करना।
*अपरिग्रह पालन का लाभ–
अपरिग्रह का अच्छी प्रकार पालन करने पर साधक को शरीर, जन्म, मृत्यु, अपना मुख्य लक्ष्य इत्यादि विषयों को जानने की तीव्र इच्छा हो जाती है।
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नियम भी पांच प्रकार के होते हैं।👇
*शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।
—योगदर्शन-२/३२
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आइए नियमों तथा उनके पालन से होने वाले लाभों को संक्षेप में जानते हैं।
(१) शौच– शौच शुद्धि को कहते हैं।
शुद्धि दो प्रकार की होती है-
(क)-बाह्य शुद्धि– शरीर, वस्त्र, पात्र, स्थान, आहार, तथा धनोपार्जन को पवित्र रखना बाह्य शुद्धि है।
(ख)- आन्तरिक शुद्धि– विद्या, सत्संग, स्वाध्याय, सत्याचरण व धर्माचरण से मन, बुद्धि व आत्मा की शुद्धि करना आन्तरिक शुद्धि है।
शौच के पालन का लाभ–
शौच का पालन करने वाले उपासक को अपना व अन्यों का शरीर मल युक्त दिखता है; इस प्रकार उसकी अपने तथा अन्यों के शरीर में आसक्ति नहीं होती है।
(२) संतोष— अपने पास विद्यमान ज्ञान, बल, तथा साधनों से पूर्ण पुरुषार्थ करने के पश्चात जो भी आनन्द, विद्या, बल, धनादि फलस्वरूप प्राप्त हो उतने में ही प्रसन्न व आनन्दित रहना अर्थात कम मिलने पर विचलित न होना।
*सन्तोष का फल–
सन्तोष का पालन करने वाले उपासक की विषय भोगों की इच्छा नष्ट हो जाती है और उसको शान्ति रूपी विशेष सुख की प्राप्ति होती है।
(३) तप— धर्माचरणरूप उत्तम कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को प्रसन्नता पूर्वक सहन करना।
*तप करने से लाभ—
तप का अनुष्ठान करने वाले उपासक का शरीर, मन, तथा इन्द्रियां बलवान् एवं दृढ होते हैं तथा वे उसके अधिकार में आ जाते हैं।
(४) स्वाध्याय—- मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले वेद, दर्शन, उपनिषद् आदि सत्य शास्त्रों का पढना, उनका चिन्तन मनन करना व व्यवहार में भी लाना तथा प्रणव आदि पवित्र मंत्रों का अर्थ की भावना से जप करना।
*स्वाध्याय करने का लाभ—
स्वाध्याय करने वाले उपासक की आध्यात्मिक पथ पर बढने की श्रद्धा व रुचि बढती है तथा वह ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावों को अच्छी प्रकार जानकर उसके साथ सम्बन्ध भी जोड लेता है। साथ उसका विद्वानों, ऋषियों और प्रतिपाद्य विषय के साथ संबद्ध होता है।
(५) ईश्वर प्रणिधान— शरीर, बुद्धि, बल, विद्या, धन आदि समस्त साधनों को ईश्वर प्रदत्त मानकर उनका प्रयोग मन, वाणी तथा शरीर से ईश्वर की प्राप्ति के लिए ही करना ;लौकिक उद्देश्य धन, सम्मान आदि की प्राप्ति के लिए न करना। साथ ही ईश्वर की भक्ति विशेष करना अर्थात ईश्वर की आज्ञा का पालन करना, ईश्वर प्रणिधान कहलाता है। सर्वव्यापक, सर्वज्ञ ईश्वर मुझे देख, सुन व जान रहा है। ऐसी भावना मन में बनाए रखना ईश्वर प्रणिधान के अन्तर्गत आता है।
*ईश्वर प्रणिधान का लाभ–
ईश्वर प्रणिधान का अच्छे से पालन करने वाले उपासक की शीघ्र ही समाधि लग जाती है।
अष्टांग योग का तीसरा अंग- आसन
आसन की परिभाषा- स्थिरसुखमासनम्—योगदर्शन- २/४६
जिस स्थिति में बिना हिले डुले सुख पूर्वक प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा, ईश्वर का ध्यान और समाधि लगा सकें उसको आसन कहते हैं।
आसन की सिद्धि–
- समस्त शारीरिक चेष्टाओं को बंद करने से और अनन्त परमात्मा में ध्यान लगाने से आसन की सिद्धि होती है।
आसन सिद्ध होने पर लाभ–
आसन सिद्ध हो जाने पर साधक द्वन्द्वों को सहने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। उसे शीतलता,उष्णता, भूख, प्यास, रोग आदि द्वन्द्व अधिक पीड़ा नहीं करते हैं।