ऋषि, महर्षि, मुनि, साधुऔर संत में क्या अंतर है

Book Pandit for Puja in Delhi

Book Pandit for Puja in Delhi भारत में प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है क्योंकि ये समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे। ऋषि -मुनि अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज भी तीर्थ स्थल, जंगल और पहाड़ों में कई साधु-संत देखने को मिल जाते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि साधु, संत, ऋषि, महर्षि आदि यह सब अलग-अलग होते हैं। क्योंकि ज्यादातर लोग इनका अर्थ एक ही समझते हैं। आइए आज हम आपको बताते हैं कि ऋषि, महर्षि, मुनि, साधु और संत में क्या अंतर है और उनके बारे में क्या मान्यताएं हैं…

#ऋषि
ऋषि वैदिक संस्कृत भाषा का शब्द है। वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ही ऋषि का दर्जा प्राप्त है। ऋषि को सैकड़ों सालों के तप या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर पर माना जाता है। वैदिक कालिन में सभी ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे। ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है। ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ-साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम थे। हमारे पुराणों में सप्त ऋषि का उल्लेख मिलता है, जो केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा भृगु हैं।

#महर्षि
ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुंचने वाले व्यक्ति को महर्षि कहा जाता है। इनसे ऊपर केवल ब्रह्मर्षि माने जाते हैं। हर सभी में तीन प्रकार के चक्षु होते हैं। वह ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु और परम चक्षु हैं। जिसका ज्ञान चक्षु जाग्रत हो जाता है, उसे ऋषि कहते हैं। जिसका दिव्य चक्षु जाग्रत होता है उसे महर्षि कहते हैं और जिसका परम चक्षु जाग्रत हो जाता है उसे ब्रह्मर्षि कहते हैं। अंतिम महर्षि दयानंद सरस्वती हुए थे, जिन्होंने मूल मंत्रों को समझा और उनकी व्याख्या की। इसके बाद आज तक कोई व्यक्ति महर्षि नहीं हुआ। महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परामात्मा को समर्पित हो जाते हैं।

#साधु
साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। साधु होने के लिए विद्वान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है। प्राचीन समय में कई व्यक्ति समाज से हटकर या समाज में रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उससे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है। साथु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति और इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है और साधु की उपाधि दी जाती है।

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#संत
संत शब्द संस्कृत के एक शब्द शांत से बिगड़ कर और संतुलन से बना है। संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं। बहुत से साधु, महात्मा संत नहीं बन सकते क्योंकि घर-परिवार को त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए चले जाते हैं, इसका अर्थ है कि वह अति पर जी रहे हैं। जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, उसे संत कहते हैं। संत के अंदर सहजता शांत स्वभाव में ही बसती है। संत होना गुण भी है और योग्यता भी।

#मुनि
मुनि शब्द का अर्थ होता है मौन अर्थात शांति यानि जो मुनि होते हैं, वह बहुत कम बोलते हैं। मुनि मौन रखने की शपथ लेते हैं और वेदों और ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो ऋषि साधना प्राप्त करते थे और मौन रहते थे उनको मुनि का दर्जा प्राप्त होता था। कुछ ऐसे ऋषियों को मुनि का दर्जा प्राप्त था, जो ईश्वर का जप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे, जैसे कि नारद मुनि। मुनि मंत्रों को जपते हैं और अपने ज्ञान से एक व्यापर भंडार की उत्पत्ति करते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण के लिए रास्ता दिखाते हैं। मौन साधना के साथ-साथ जो व्यक्ति एक बार भोजन करता हो और 28 गुणों से युक्त हो, वह व्यक्ति ही मुनि कहलाता था।

ओ३म्!! श्री परमात्मने नम:🌺🌺

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