Panditji for Shraddh Puja
- श्राद्ध कर्म क्यों?
पूर्वजों द्वारा पितर श्रेणी धारण कर लेने की अवस्था में उनकी शांति तथा तृप्ति के लिए श्राद्ध-कर्मों का विधान है। ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा यह दी है – ‘जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।’
मिताक्षरा (याज्ञ. 1/217) ने श्राद्ध को इस तरह परिभाषित किया है – ‘पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का अथवा उनसे सम्बंधित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।’
तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धांत यह बताता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएं पचास अथवा सौ वर्षों के उपरान्त भी वायु में संतरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगंधि अथवा सारतत्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति (1/269), मार्कण्डेय पुराण (29/38), मत्स्य पुराण (19/11-12) एवं अग्नि पुराण (163/41-42) में उल्लेख है कि पितामह (पितर) श्राद्ध में दिए गए पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, संपत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष आदि सभी सुख तथा राज्य देते हैं।.
मत्स्य पुराण (19/3-9) में एक प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि पिता, पितामह एवं प्रपितामह, वैदिक उक्तियों के अनुसार क्रमशः वस्तुओं, रुद्रों एवं आदित्यों के समान रूप माने गए हैं। वे नाम एवं गोत्र, उच्चरित मन्त्र एवं श्रद्धा से अर्पित आहुतियों को समस्त पितरों के पास ले जाते हैं। यदि किसी के पिता (अपने सत्कर्मों के कारण) देवता हो गए हैं, तो श्राद्ध में दिया गया भोजन अमृत हो जाता है और वह उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य हो गए हैं, तो वह उनके पास भांति-भांति आनन्दों के रूप में पहुंचता है। यदि वे पशु हो गए हैं, तो वह उनके लिए घास रूप में उपस्थित हो जाता है और यदि वे सर्प हो गए हैं, तो श्राद्ध-भोजन वायु बन कर उनकी सेवा करता है।.
डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ (पृष्ठ 1199) में पुनर्जन्म एवं कर्म-विपाक सिद्धांत के आधार पर श्राद्ध-कर्म को अनुपयोगी बताने वालों को ग़लत ठहराते हुए लिखा है – ‘प्रतीत होता है कि (श्राद्ध द्वारा) पूर्वज-पूजा प्राचीन प्रथा है तथा पुनर्जन्म एवं कर्म-विपाक के सिद्धांत अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो व्यापक है (अर्थात सभी को स्वयं में समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धांत ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों का त्यों रख लिया है। एक प्रकार से श्राद्ध-संस्था अति उत्तम है। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है, जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे।’.
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*श्राद्ध-कर्म की उत्पत्ति
सूत्रकाल (लगभग 600 ई. पू.) से लेकर मध्यकाल तक के धर्मशास्त्रकारों ने श्राद्ध पर विस्तृत चर्चा की है। आपस्तम्बधर्म सूत्र (2/7/16/1-3) ने कहा है – ‘पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव यज्ञों के कारण (पुरस्कार स्वरूप) स्वर्ग चले गए। किन्तु मनुष्य रह गए। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं, वे परलोक (स्वर्ग) में देवों और ब्रह्मा के साथ निवास करते हैं। तब (मनुष्यों को पीछे रहते देख कर) मनु ने इस कृत्य का आरम्भ किया, जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है, जो मानव जाति को श्रेष्य (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है। इस कृत्य में पितर देवता (अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आह्वनीय अग्नि (जिसमें यज्ञों के समय आहुतियां दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं। इस अंतिम सूत्र के कारण आपस्तम्बधर्म सूत्र के टीकाकार हरदत्त एवं कुछ अन्य विद्वानों का कथन है कि श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराना प्रमुख कृत्य है।.
ब्रह्माण्ड पुराण (उपोद्धातपाद 9/15, 10/99) ने मनु को श्राद्ध के कृत्यों का प्रवर्तक एवं विष्णु पुराण (3/1/30), वायु पुराण (44/38) एवं भागवत. (3/1/22) ने उन्हें श्राद्ध देव कहा है। इसी प्रकार शान्ति पर्व (345/14-21) एवं विष्णुधर्मोत्तर (1/139/14-16) में आया है कि श्राद्ध प्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह एवं प्रपितामह को दिए गए तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे और आपस्तम्बधर्म सूत्र के कथन से ऐसा अनुमान सहज है कि ईसा से कई शताब्दियों पूर्व श्राद्ध प्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानव जाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है। किन्तु ज्ञातव्य है कि ‘श्राद्ध’ शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक वचन में नहीं पाया जाता, बल्कि पिण्ड-पितृ यज्ञ (जो आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पन्न होता था), महापितृ यज्ञ (चातुर्मास या साकमेध में सम्पादित) एवं अष्टका आरंभिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे।.
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कठोपनिषद (1/3/17) में ‘श्राद्ध’ शब्द का उपयोग हुआ है – ‘जो कोई इस अत्यंत विशिष्ट सिद्धांत को ब्राह्मणों की सभा में अथवा श्राद्ध के समय उद्घोषित करता है, वह अमरत्व प्राप्त करता है।’ ‘श्राद्ध’ शब्द के अन्य आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। यह अनुमान सहज है कि पितरों से सम्बंधित बहुत ही कम कृत्य उन दिनों किए जाते थे, अतः किसी विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गई। किन्तु पितरों के सम्मान में किए गए कृत्यों की संख्या में जब वृद्धि या आधिक्य हुआ, तो सभी को समाहित करते हुए ‘श्राद्ध’ शब्द की उत्पत्ति हुई।.
यह भी स्पष्ट है कि यह शब्द ‘श्रद्धा’ से बना है। ब्रह्म पुराण, मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा का घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत अथवा पितरों के कल्याण के लिए जो कुछ दान अथवा त्याग किया जाता है, वह उन्हें अवश्य मिलता है। स्कन्द पुराण (6/218/3) का भी कथन है कि ‘श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा कि इस कृत्य में श्रद्धा मूल है। मार्कण्डेय पुराण (29/27) में भी श्राद्ध का सम्बन्ध श्रद्धा से द्योतित करते हुए कहा गया है कि श्राद्ध में जो कुछ दिया जाता है, वह पितरों द्वारा प्रयुक्त होने वाले उस भोजन में परिवर्तित हो जाता है, जिसे वे कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार नए शरीर के रूप में पाते हैं।.
*श्राद्ध-कर्म के अधिकारी
कुछ धर्मशास्त्रों (यथा विष्णुधर्म सूत्र) ने व्यवस्था दी है कि जो कोई मृतक की संपत्ति लेता है, उसे उसके लिए श्राद्ध-कर्म करना चाहिए और कुछ ने ऐसा कहा है कि जो भी श्राद्ध करने की योग्यता रखता है अथवा श्राद्ध का अधिकारी है, वह मृतक की संपत्ति ग्रहण कर सकता है।
गोभिल स्मृति (3/70, 2/104) ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि पुत्रहीन पत्नी को (मरने पर) पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को तथा बड़े भाई द्वारा अनुज को पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, निमि ने अपने मृत पुत्र का श्राद्ध किया था, किन्तु आगे चल कर उन्होंने पश्चाताप किया, क्योंकि वह कार्य ‘धर्मसंकट’ था। किन्तु बृहत्पराशर (पृष्ठ 153) ने कहा है कि कभी-कभी यह सामान्य नियम भी नहीं माना जा सकता।.
बौधायन एवं वृद्धशातातप (स्मृतिचंद्रिका – 337) ने किसी को स्नेहवश किसी के लिए भी श्राद्ध करने की (विशेषतः गया में) अनुमति दी है। स्मृत्यर्थसार (पृष्ठ 56) में लिखा है कि अनुपवीत (जिसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ है) बच्चों, स्त्रियों एवं शूद्रों को पुरोहित द्वारा श्राद्ध-कर्म कराना चाहिए। वे स्वयं भी बिना मन्त्रों के श्राद्ध कर सकते हैं, किन्तु वे केवल मृत के नाम एवं गोत्र अथवा दो मन्त्रों, यथा – ‘देवेभ्यो नमः’ एवं ‘पितृभ्यः स्वधा नमः’ का उच्चारण कर सकते हैं।.
मेधातिथि (मनु स्मृति 2/172) ने व्याख्या की है कि अल्पवयस्क पुत्र भी, यद्यपि वह उपनयनविहीन होने के कारण वेदाध्ययन रहित है, अपने पिता को जल – तर्पण कर सकता है, नवश्राद्ध कर सकता है और ‘शुन्धन्ता पितरः’ जैसे मन्त्रों का उच्चारण कर सकता है, किन्तु श्रोताग्नियों या गृह्याग्नियों के अभाव में वह पार्वण जैसे श्राद्ध नहीं कर सकता।.
याज्ञवल्क्य (2/50) का कथन है कि पिता की मृत्यु पर अथवा जब वह दूर देश में चला गया है अथवा आपदाग्रस्त है, तो उसके ऋण पुत्रों या पौत्रों द्वारा चुकाए जाने चाहिए। मिताक्षरा में यह भी है कि पुत्र अथवा पौत्र को वंश संपत्ति नहीं मिलने पर भी पिता के ऋण चुकाने चाहिए। यद्यपि किसी भी ग्रन्थ में यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि पौत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है, तथापि याज्ञवल्क्य एवं मिताक्षरा के कथनों से यह अनुमान सहज है कि पौत्र को भी श्राद्ध करने का अधिकार है।.
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*श्राद्ध-काल
‘शतपथ ब्राह्मण’ के बहुत पहले प्रत्येक गृहस्थ के लिए पंचमहायज्ञों की व्यवस्था थी – भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ एवं ब्रह्म यज्ञ। शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तिरीयारण्यक (2/10) ने कहा है कि आह्रिक यज्ञ, जिसमें पितरों को स्वधा (भोजन) एवं जल दिया जाता है, पितृ यज्ञ कहलाता है। मनु (3/70) ने पितृ यज्ञ को तर्पण (जल से पूर्वजों की संतुष्टि) करना कहा है। उन्होंने व्यवस्था (3/83) दी है कि प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन भोजन अथवा जल अथवा दूध, मूल एवं फल के साथ श्राद्ध कर पितरों को संतोष देना चाहिए।.
प्रारम्भिक रूप में श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता था (गौतम 15/1-2)। अमावस्या दो प्रकार की होती है – सिनीवाली एवं कुहू। आहिताग्नि (अग्निहोत्री) सिनीवाली में तथा इससे भिन्न एवं शूद्र लोग कुहू अमावस्या में श्राद्ध करते हैं।.
काल-क्रमानुसार श्राद्ध तीन कोटियों – नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य में विभाजित किए गए हैं। वह श्राद्ध नित्य कहलाता है, जिसके लिए ऎसी व्यवस्था दी हुई हो कि वह किसी निश्चित अवसर पर किया जाए, जैसे आह्रिक, अमावस्या के दिन वाला अथवा अष्टका के दिन वाला। किसी ऐसे अवसर पर किया जाए, जो अनिश्चित हो, यथा पुत्रोत्पत्ति आदि पर, वह नैमित्तिक तथा किसी विशिष्ट फल की कामना से किया जाने वाला काम्य कहलाता है।
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आपस्तम्बधर्म सूत्र (2/7/16/4-7) ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध का सम्पादन प्रत्येक मास के अंतिम पक्ष में हो जाना चाहिए। अपराह्न को वरीयता मिलनी चाहिए तथा पक्ष के अंतिम दिनों को अधिक महत्त्व देना चाहिए। गौतम (15/3) एवं वशिष्ठ ((11/16) का कथन है कि श्राद्ध प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी को छोड़ कर किसी भी दिन किया जा सकता है और गौतम (15/5) ने पुनः कहा है कि यदि विशिष्ट रूप में उचित सामग्री अथवा पवित्र ब्राह्मण उपलब्ध हों अथवा कर्ता किसी पवित्र स्थान में हो, तो श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है।.
मनु (3/276-278) ने व्यवस्था दी है कि मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को छोड़ कर दशमी से आरम्भ करके किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है, किन्तु यदि कोई चांद्र सम तिथि (दशमी एवं द्वादशी) और सम नक्षत्रों (भरणी, रोहिणी आदि) में श्राद्ध करे, तो उसकी इच्छाओं की पूर्ति होती है। किन्तु जब कोई विषम तिथि (एकादशी, त्रयोदशी आदि) में पितृ पूजा करता है और विषम नक्षत्रों (कृत्तिका, मृगशिरा आदि) में ऐसा करता है, तो भाग्यशाली संतति को प्राप्त करता है।.
मास के कृष्ण पक्ष को शुक्ल पक्ष पर तथा अपराह्न को मध्याह्न पर वरीयता दी गई है। याज्ञवल्क्य स्मृति (1/217-18), कूर्म. (2/20/2-8), मार्कण्डेय. (28/20) एवं वराह. (13/33-35) ने श्राद्ध-सम्पादन के कालों को इस तरह रखा है – अमावस्या, अष्ट का दिन, शुभ दिन, कृष्ण पक्ष, दोनों अयन (वे दोनों दिन जब सूर्य उत्तर या दक्षिण की ओर जाना प्रारम्भ करता है), पर्याप्त सम्भारों (भोज्य पदार्थों) की उपलब्धि, किसी योग्य ब्राह्मण का आगमन, एक राशि से दूसरी राशि में जाने वाले सूर्य के दिन, व्यतीपात, गजच्छाया नामक ज्योतिष संधियां, चंद्र और सूर्यग्रहण तथा जब कर्म-कर्ता के मन में तीव्र इच्छा का उदय हो।.
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गार्ग्य (पराशरमाधवीय 1/2-324) ने व्यवस्था दी है कि नन्दा, शुक्रवार, कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, जन्म नक्षत्र और इसके एक दिन पूर्व एवं पश्चात वाले नक्षत्रों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे पुत्रों एवं सम्पत्ति के नष्ट हो जाने का भय रहता है। अनुशासन पर्व में भी यही कहा गया है कि जो व्यक्ति त्रयोदशी को श्राद्ध करता है, वह पूर्वजों में श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है, किन्तु इसके कारण उसके परिवार के युवा व्यक्ति मर जाते हैं।.
विष्णुधर्मसूत्र (77/1-7) का कहना है कि जब सूर्य एक राशि से दूसरी में जाता है; दोनों विषुवतीय दिन, विशेषतः उत्तरायण और दक्षिणायन के दिन; व्यतीपात, कर्ता के जन्म की राशि, पुत्रोत्पत्ति आदि के उत्सवों का काल आदि काम्य काल हैं और इन अवसरों पर किया गया श्राद्ध पितरों को अत्यन्त आनन्द देता है। आगे (78/1-7) यह भी कहा गया है कि रविवार को श्राद्ध करने वाला रोगों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है और वे जो सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि को श्राद्ध करते हैं, वे क्रमशः प्रशंसा, युद्ध में विजय, इच्छा पूर्ति, अभीष्ट ज्ञान, धन और लम्बी आयु प्राप्त करते हैं। विष्णुधर्मसूत्र ने कृत्तिका से भरणी (अभिजित को सम्मिलित कर) तक के 28 नक्षत्रों में किए जाने वाले श्राद्धों के उत्पन्न फलों का भी विस्तृत वर्णन किया है। अग्निपुराण (117/61) में उल्लेख है कि किसी तीर्थ, युगादि एवं मन्वादि दिनों में किए गए श्राद्ध पितरों को अक्षय संतुष्टि देते हैं।.
आपस्तम्बधर्म सूत्र (7/17/23-25), मनु स्मृति (3/280), विष्णुधर्म सूत्र (77/8-9), भविष्य पुराण (1/185/1) आदि ने रात्रि, संध्या (गोधूलि वेला) अथवा जब सूर्य तत्काल उदय हुआ हो, ऐसे कालों में श्राद्ध वर्जित किया है, किन्तु चंद्र ग्रहण के समय इसमें छूट दी है। आपस्तम्बधर्म सूत्र में यह भी कहा गया है कि यदि श्राद्ध अपराह्न में प्रारम्भ हुआ हो और किसी कारण विलम्ब होने पर सूर्यास्त हो जाए, तो कर्ता को श्राद्ध के शेष कर्म दूसरे दिन करने चाहिए और दर्भों पर पिण्ड रखने तक उपवास रखना चाहिए।.
*श्राद्ध-स्थल
श्राद्ध-कर्म में उसके उपयुक्त स्थल का भी बहुत महत्व है। स्थल अनुपयुक्त होने पर श्राद्ध के फल में कमी होती है तथा अनेक स्थितियों में कर्ता पाप का भागी भी हो सकता है। मनु (2/206-207) ने व्यवस्था दी है कि कर्ता को प्रयास कर दक्षिण की ओर ढालू भूमि खोजनी चाहिए, जो पवित्र हो और जहां मनुष्य प्रायः नहीं जाते हों। उस भूमि को गोबर से लीप देना चाहिए, क्योंकि पितर वास्तविक स्वच्छ स्थलों, नदी तटों एवं उस स्थान पर किए गए श्राद्ध से प्रसन्न होते हैं, जहां लोग बहुदा कम जाते हैं।.
याज्ञवल्क्य (1/227) ने कहा है कि श्राद्ध-स्थल चारों ओर से आवृत्त, पवित्र एवं दक्षिण की ओर ढलान वाला होना चाहिए। यम ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई किसी अन्य की भूमि पर श्राद्ध करता है, तो उस भूमि के स्वामी के पितरों द्वारा वह श्राद्ध-कृत्य नष्ट कर दिया जाता है, अतः व्यक्ति को पवित्र स्थानों, नदी तटों और विशेषतः अपनी भूमि पर, पर्वत के पास लता कुंजों एवं पर्वत के ऊपर श्राद्ध करना चाहिए। लगभग सभी ग्रंथों ने श्राद्ध के सर्वाधिक योग्य स्थल तीर्थ माने हैं और लिखा है कि प्रभास, पुष्कर, गया, प्रयाग, काशी आदि स्थानों पर जो भी वस्तु दी जाती है, वह अक्षय होती है।.
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विष्णुधर्मसूत्र (अ. 84) ने व्यवस्था दी है कि म्लेच्छ देश में न तो जाना चाहिए, न श्राद्ध करना चाहिए। उसमें बताया गया है कि म्लेच्छ देश वह है, जहां चारों वर्ण की व्यवस्था लागू नहीं है।.
वायु पुराण ने व्यवस्था दी है कि त्रिशंकु देश, जिसका विस्तार बारह योजन है, जो महानदी के उत्तर और कीकट (मगध) के दक्षिण में है, श्राद्ध के योग्य नहीं है। इसी प्रकार कारस्कर, कलिंग, सिंधु के उत्तर के देश और वे सभी भूभाग, जहां वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं है, श्राद्ध के योग्य नहीं हैं।.
मार्कण्डेय पुराण (29/9) ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध के लिए उस भूमि को त्याग देना चाहिए, जो कीट-पतंगों से युक्त, रुक्ष, अग्नि से दग्ध है; जिसमें कर्णकटु ध्वनि होती है, और जो देखने में भयंकर तथा दुर्गन्धयुक्त है।.
ब्रह्म पुराण (220/8-10) ने कहा है कि किरात, कोंकण, क्रिमि (क्रिवि), नदी के उत्तरी तट, नर्मदा नदी के दक्षिणी तट तथा करतोया के पूर्वी भाग में श्राद्ध नहीं किया जाना चाहिए।.
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